भारतीय समाज और जीवन एक रस, एक रूप है: रमेश शर्मा

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भारतीय समाज और जीवन एक रस, एक रूप है: रमेश शर्मा

भारतीय समाज और जीवन एक रस, एक रूप है: रमेश शर्मा 

इन दिनों भारतीय सामाजिक और राजनैतिक जीवन में एक विशेष वातावरण बनाया जा रहा है । वह यह कि वनवासी या आदिवासी समाज अलग है और नगरीय समाज अलग । इन्हें अलग दिखा कर संघर्ष की शुरुआत अंग्रेजों ने की थी और योजना पूर्वक कुछ विदेशी विचार के अनुयायियों ने आगे बढ़ाया । जबकि भारत ही नहीं विश्व भर के वैज्ञानिकों और पुरातत्ववेत्ताओं ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भारत में सभ्यता का विकास वन में हुआ और इसी विकास क्रम में ग्राम और नगर बसे । इस शोध का कारण यह है कि वैदिक विवरणों से प्रमाणित हो गया है कि आर्य कोई नस्ल या जाति नहीं अपितु मनुष्य की आदर्शता का पैमाना रहा है ।
भारत में जीवन शैली एक चक्र के रूप में रही है । जीवन वन में हुआ और विकसित होकर ग्राम और ग्राम विकसित होकर नगर बने । फिर नगर में जीवन जी कर पुनः वानप्रस्हत । जीवन के वन में विकास का आधार यह था कि आरंभिक मनुष्य प्राकृतिक जीवन जीता था । चंद, मूल और फल के रूप में भोजन वन में सहज उपलब्ध था, पीने के लिये पानी भी । इसलिये मानवीय विकास का क्रम वन में ही आरंभ हुआ । जब मनुष्य ने अपनी बुद्धि और कौशल से कुछ यंत्र विकसित किये, अग्नि का अविष्कार किया, पानी को सहेजने की कला विकसित की तब उसने समूह बनाकर जीना सीखा और इन समूहों के आधार पर गाँव बसे । फिर नगर । लेकिन नगरों के अस्तित्व में आने के बाद भी वनों से लगाव कम न हुआ । इसीलिये प्राचीन भारत में सभी विद्यालय और  चिकित्सालय वनों में ही होते थे । सभी प्रकार के अनुसंधान कार्य या रिसर्च केन्द्र भी वन में हुआ करते थे । 
तपोस्थल भी वन में हुआ करते थे । गाँव वन और नगर के बीच समन्वय का काम करते थे । 
कोई भी समाज एक दूसरे से पृथक नहीं । सब एक दूसरे का अंग 
भारत में जितने वनवासी हैं,  या आज की भाषा में आदिवासी हैं सब ऋषियों, तपस्वियों, चिकित्सकों और गुरुओं की संतान हैं । इन्हीं संतानों ने नगर बसाये । यदि यह कहा जाये कि संपूर्ण भारतीय जीवन के पूर्वज वनवासी हैं और सबका डीएनए एक है तो अनुचित नहीं है । वनवासियों की जीवनशैली आज भी वैदिक मानदंड के आसपास है । सैकड़ो  वर्ष की दासता और विदेशी आक्रमणों के बाबजूद वन जीवन आज भी वैदिक मान्यताओं के आसपास है । इसका प्रमाण यह है कि सभी वनवासी भाई अपेक्षाकृत शाँत रहते हैं । अपना विवाद आपस में सुलझा लेते हैं । अपराध कम हैं । जड़ी बूटियों से बड़े बड़े रोगों का उपचार करना जानते हैं । इस धरती के सबसे बड़े सेवक हैं तो हमारे वनवासी बंधु ही हैं । भारत में वैदिक जीवन के अनुरुप कोई जीता है तो हमारे वनवासी भाई ही जीते हैं । इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उनका नाम वनवासी है या आदिवासी । वे  प्रकृति के सच्चे सेवक हैं । और प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते हैं जितनी आवश्यकता होती है । 
यही वेद का संदेश है । 
यही संकल्प आर्यों का था । जिसपर हमारे वनवासी आज भी चल रहे हैं । हमें शब्दों पर विवाद नहीं करना है । यदि वनवासी शब्द अच्छा न लगता तो आदिवासी शब्द अच्छा लगता है तो वही मानें । लेकिन हम आपस में कोई विवाद और बहस न करें । इससे समाज कमजोर होगा और देश कमजोर होगा । आज दुनियाँ के लोग हमें आपस में लड़ाने के षडयंत्र कर रहे हैं इसलिये हमें शब्दों पर विवाद नहीं करना है । इससे दुश्मनों को ताकत मिलेगी हमने आपस में लड़ कर दुश्मनों को बहुत मौका दे दिया । यह हमारी एकजुटता का अभाव ही रहा या परस्पर लड़ने का कारण  ही हम गुलाम रहे । लगभग बारह सौ वर्षों तक दासता में जीवन काटा  । यह गुलामी केवल आपस में लड़ने लड़ाने के कारण ही आई । हमने बहुत कुछ खोया है । अब हमें जागरुक होना है और इस सत्य को समझना है कि हम सब एक ही पूर्वजों की संतान हैं 
हमारे भोलेपन का लाभ उठाकर यह प्रचार किया कि हम आर्य भारतीय नहीं, हमलावर थे । आर्य  शब्द ऋग्वेद में आया । ऋग्वेद दुनियाँ का सबसे पुराना ग्रंथ है । जिसमें आर्य शब्द श्रेष्ठता के लिये आया । श्रेष्ठ कौन होता है । श्रेष्ठ वह होगा जो सत्य, अहिंसा, क्षमा और परोपकार  का आचरण करता हैं इसलिये वेद ने कहा "मनुष्य बनो" और यह भी संकल्प लिया कि हमें "विश्व को आर्य बनाना है" । आप देख लीजिये वनवासी बंधुओं को । वेद में जो पहचान आर्यों की है वह लक्षण वनवासी बंधुओं में खूब मिलते है । इसलिये वनवासी या आदिवासी बंधु आर्य हैं । इसीलिए हमारे देश का नाम आर्यावर्त रहा है । भला बताइये यदि आर्य नस्ल होती तो क्या संसार को आर्य बनाने की बात होती । लेकिन भारतीय समाज को बांटने के लिये योजना पूर्वक यह प्रचार हुआ कि वनों में रहने वाले अलग और नगर में रहने वाले अलग । इसमें कोई संदेह नहीं कि वनवासी ही मूल निवासी हैं, इस नाते उन्हे  आदिवासी भी कह सकते हैं, लेकिन इस शब्द से अलगाव जैसा लगता है । नगर में रहने वाले भी तो वनवासी पूर्वजों की ही संतान हैं । सबके पूर्वज एक हैं । हम अपने आसपास देखें । वनवासियों के कितने बंधु नगरों में रहने लगे । उन्होंने भवन बना लिये, बच्चे पढ़कर ऊँची नौकरी में आ गये । तब दो सौ चार सौ साल बाद क्या वे हमारे बंधु नहीं रहेंगे ? हमारे पूर्वजों की संतान न रहेंगे ? यही बात हमें दो सौ या चार सौ साल पुराने समाज के संदर्भ में समझनी चाहिये । और इस दुष्प्रचार से दूर होना चाहिए कि हम अलग और हमारे नगरवासियों के परिवार या ग्राम वासियों के परिवार अलग हैं । हम सब एक हैं और एक ही पूर्वजों की संतान हैं । आदिवासी शब्द अंग्रेजों ने भारतीय समाज को तोड़ने केलिये गढ़ा था । इसलिये हमें शब्दों पर विवाद नहीं करना है । हमें जो शब्द अच्छा लगे वही उपयोग करें । यदि आदिवासी शब्द अच्छा लगता है तो इसी का उपयोग करें पर इस शब्द का उपयोग करके किसी को स्वयं से अलग न समझें । एक बात और समझ लेनी चाहिए कि  कौन सा शब्द किसने ईजाद किया और उसकी मंशा क्या थी । अंग्रेजों ने वनवासी भाइयों के लिये सबसे पहले ट्राइव शब्द गढ़ा । इसी से ट्राइवल शब्द बना । लेकिन यह शब्द प्रचलन में कम आया तब उन्होंने हिन्दी में आदिवासी शब्द गढ़ा और प्रचार किया कि इस धरती के मूल निवासी वही हैं । और नगरवासी भी ठीक उसी प्रकार हमलावरों के रूप में भारत आये जैसे अंग्रेज आये । यदि वे पहले पुराने हमलावरों से जुड़े तो अब नये हमलावरों से जुड़ने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए । इसलिये उन्होंने योजना यह प्रचार किया । उनके इस प्रचार के पीछे का कारण यह था कि वनवासी बंधुओं ने कभी भी अंग्रेजों का वर्चस्व स्वीकार नहीं किया । वनवासी बंधु  न भय से विचलित हुये और न लालच से । इतिहास गवाह है कि वनवासियों ने सतत संघर्ष जारी रखा । हर हमलावर का अंतिम मुकाबला वनवासियों ने ही किया । जो युद्ध भी जीते गये वे वनवासियों की शक्ति से ही जीते गये । वनवासियों ने अंग्रेजों का सामना तब भी किया जब देश में स्वतंत्रता आंदोलन शुरु भी न हुआ था और न 1857 की क्रांति की शुरुआत ही हुई थी । तब भी वनवासी बंधु अपनी मातृभूमि की दासता से विचलित होकर संघर्ष के लिये आ डटे थे । क्षेत्र मालवा का हो या निमाड़ का, संथाल का हो या महाकौशल का, मिथिला हो या तुंगभद्रा का, अरावली पर्वतीय क्षेत्र हो या गोदावरी का वन क्षेत्र हर जगह वनवासियों के संघर्ष से इतिहास भरा हुआ है । इसी से भयभीत होकर अंग्रेजों  ने योजना बनाईं और समाज को तोड़ने के षडयंत्र किये । इसी सोच के अनुरुप लेख तैयार हुये । पादरियों ने कमर कस कर जंगलो में घूमना शुरू किया । लोंगो को भरमाने और भड़काने का काम शुरू किया । इसकी कमान चर्च के हाथ में थी इसीलिए वनों में पादरियों की उपस्थिति दिखतीं है यह उपस्थिति तब भी थी और आज भी है । इसीलिए अलगावाद यह प्रचार अंग्रेजी सत्ता जाने के बाद भी न रुक रहा । 
वे आर्यों का आगमन ईसा से हजार पन्द्रह सौ साल पहले का बताते हैं । वस यहीं उनसे चूक हुई । वे भूल गये कि रामजी का जन्म तो ईसा से हजारों लाखों साल पहले हुआ और उसमें वनवासी समाज का वर्णन मिलता है । शवरी का वर्णन,  निषाद, किरात का वर्णन मिलता है और हनुमान जी का भी । हनुमान जी महाराज वनवासी समाज से थे ।

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