Sidhi News: ‘‘पुरातत्व, पर्यटन और संस्कृति’’: प्रशांताश्रम चंद्रेह मंदिर एवं शैव मठ- एक अनसुनी गाथा
(लेखक श्री श्रेयस गोखले सीधी जिले में डिप्टी कलेक्टर के पद पर पदस्थ हैं)
------
सीधी।
‘‘स शोणनद-संगमे भ्रमरशैल-मूलेतुलं
प्रियालवन-संकुले फल-मृणाल-कंदाशनः।
चकार विदितं जनैर्मुनिसखः प्रशांताश्रमं
स्वपाद-पद-पंक्तिभिः पवित-भूतलो यः कृती।।’’
-प्रशांताश्रम शिलालेख, चंद्रेह
भावार्थ- कंद मूल का भोजन करने वाले, मुनियों के प्रिय, उन कर्तव्यशील प्रशांतशिव आचार्य ने भूमि को अपने चरणों से पवित्र करते हुए शोण नद के संगम पर, भ्रमरशैल पर्वत की तलहटी में, अचार वन के परिसर में लोगों के मध्य प्रसिद्ध यह अतुलनीय प्रशांताश्रम स्थापित किया।
जिले की रामपुर नैकिन तहसील का चंद्रेह ग्राम अपने में एक गहरे इतिहास व धरोहर को समेटे हुए है। भव्य शैव मंदिर और मठ के अवशेष के रूप में यह विरासत आज यद्यपि भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित हैं, लेकिन इससे जुड़ी अधिकांश गाथाएं आज भी बिखरी हुई जनस्मृति का भाग हैं।
972 ईस्वी में फाल्गुन शुक्ल पंचमी के दिन स्थापित यह मठ लंबे समय तक गढ़ी के रूप में जाना जाता रहा व ब्रिटिश पुरातात्विक सर्वेक्षक कनिंघम द्वारा अपने लेखों में इसे श्पैलेसश् अर्थात प्रासाद कहा गया। इसमें स्थापित दो संस्कृत शिलालेखों को पढ़े जाने पर इसका पूर्ण इतिहास लोगों के सामने आ सका एवं अनेक रोचक तथ्य भी सामने आए।
चंद्रेह शिलालेख व इस प्रकार के अन्य स्थानों से मिले शिलालेखों से मिली जानकारी अनुसार पूरे मध्यप्रदेश में 8वीं से 11वीं शताब्दी तक शैव परंपरा का व्यापक विस्तार था। चाहे वे पूर्वी मध्यप्रदेश के कल्चुरी हों, पश्चिमी मध्यप्रदेश के परमार हों या उत्तरी मध्यप्रदेश के गुर्जर प्रतिहार हों, सभी ने शैव संप्रदाय के आचार्यों को राज्याश्रय दिया जिसके फलस्वरूप इस काल में पूरे राज्य में सैंकडों छोटे-बड़े शैव मंदिर एवं मठ स्थापित हुए। परवर्ती काल में तुर्क व मुगल आक्रमणों व राज्याश्रय समाप्त होने के कारण अधिकांश आचार्यों को दक्षिण की ओर जाना पड़ा एवं ये स्थल प्राचीन वैभव के अवशेष मात्र के रूप में रह गये।
पूर्वी एवं उत्तरी मध्यप्रदेश में मत्तमयूर शैव संप्रदाय सर्वाधिक प्रसिद्ध था जिनके प्रमुख आचार्य पुरंदराचार्य, मधुमतीपति, कदंबगुहावासी, चूडाशिव, प्रभावशिव, ईशानशम्भु, प्रशांतशिव, प्रबोधशिव आदि रहे हैं व इनकी अनेक शाखाओं द्वारा कदवाया- जिला अशोकनगर, सुरवाया-जिला शिवपुरी, गोलकीमठ-जिला जबलपुर, बिलहरी- जिला कटनी, गुरगी-जिला रीवा, चंद्रेह-जिला सीधी आदि अनेक स्थानों पर मंदिर एवं मठ के रूप में तपस्थलियों का निर्माण किया गया।
शिलालेख में उल्लेख अनुसार पहले प्रशांतशिव आचार्य जिन्हें कलचुरीनरेश युवराजदेव ने अपने राज्य में आमंत्रित किया था, उनके द्वारा चंद्रेह में भगवान शिव का मंदिर स्थापित किया गया व उसी के पास उनके प्रमुख शिष्य प्रबोधशिव द्वारा मठ, तालाब एवं कूप स्थापित किया गया। यहां यह उल्लेखनीय है कि मूल शिलालेख में भी इस स्थान के लिए श्मठश् शब्द ही मिलता है जो इस बात का प्रमाण है कि यह कोई साधारण भवन नहीं था बल्कि आचार्यों का निवास व साधनास्थान था। शिलालेख में प्रयुक्त ऐसे अनेक शब्द हैं जो तत्कालीन संस्कृति के विषय में बताते हैं। ‘‘ॐ नमः शिवाय, गंगा, निर्वाण, समाधि, तप, शिष्यवर्ग, शैवचूडामणि, शोणनद संगम, भ्रमरशैल(जो आज भी भंवरसेन के नाम से प्रसिद्ध है), परशुराम, राघव, शोणस्य मरु (सोन की रेत), आश्रम, तपोवन, मठ’’ आदि शब्द तत्कालीन सांस्कृतिक महत्व के तत्वों को प्रदर्शित करते हैं। इस शिलालेख को निर्मित करने में जिनका योगदान है उनका नाम भी इसी शिलालेख में दर्ज हैं। ‘‘मेहुक के पौत्र, जेइक व अमरिका के पुत्र धांसट कवि ने इस प्रशस्ति को रचा, लक्ष्मीधर के पुत्र व वासुदेव के अनुज दामोदर ने इसका लेख तैयार किया, सूराक इसके सूत्रधार थे जिनकी आज्ञा से नीलकण्ठ ने इसे उत्कीर्ण किया।’’ इन पंक्तियों से इस काल के व्यक्तियों के विषय में भी जानकारी मिलती है। संभव है कि ये सभी अथवा इनमें से कुछ स्थानीय व्यक्ति ही होंगे जो स्वतः में गौरव की बात है।
इस स्थान का संबंध महाकवि बाणभट्ट से भी जोड़ा जाता है किंतु इस शिलालेख में उनके विषय में कोई उल्लेख नहीं है। यह शिलालेख बाणभट्ट के काल से बाद के समय का है व दोनों में दो सौ वर्ष से अधिक समय का अंतर है। किंतु यह भी उल्लेखनीय है कि शोण नद से प्रशांताश्रम व बाणभट्ट दोनों का संबंध प्रगाढ़ है एवं इतिहासकारों के मत में बाणभट्ट रचित कादंबरी में उनके जन्मस्थान का चित्रण शोण-बनास संगम के क्षेत्र जैसा ही है। अतः श्न निर्मूला जनश्रुतिः इस शास्त्रवचन अनुसार यह माना जा सकता है कि संभवतः बाणभट्ट के पूर्वज सोन के इस क्षेत्र में निवास करते रहे होंगे।
शैवाचार्यों ने इसी क्षेत्र को प्रशांताश्रम हेतु क्यों चुना इसका कारण तो शिलालेख में उपलब्ध नहीं होता है किंतु स्वाभाविक है कि यह स्थान वन, पर्वत, नदी, फल-कंद-मूल, एकांतता, शांति आदि हर दृष्टि से संपन्न होने व गुरगी मठ से निकट होने से सर्वोत्तम विकल्प रहा होगा। यह स्थान प्राचीन समय से हिंसक पशुओं का आवास रहा है किंतु फिर भी यहां इस असुरक्षित वातावरण में आचार्यों का तपस्या हेतु निवास करना किसी को भी आश्चर्यकारी लग सकता है। किंतु इसका उत्तर भी चंद्रेह शिलालेख में ही मिल जाता है और ये किसी क्षेत्र में तपस्या के महत्त्व व प्रभाव को भी प्रतिपादित करता है। शिलालेख में एक श्लोक है जो इस प्रकार है-
‘‘चुम्बन्ति वानर-गणा मृगशत्रु-पोतान् सिंही-स्तनं पिबति चात्र शिशुर्मृगस्य।
वैरं निजं परिहरन्ति विरोधिनोऽन्ये सर्वस्य शाम्यति मनो हि तपोवनेषु।।’’
अर्थात् - जहां वानर गण सिंह के शावकों को चूमते हैं एवं मृग का शिशु सिंहनी का दुग्ध पीता है, एक दूसरे के परस्पर विरोधी अपना अपना वैर भाव छोड़ देते है, ऐसे तपोवन में सभी का मन शांत हो जाता है।
ऐसे अनेक तपोवनों से सिद्ध हुई सीधी की यह पवित्र भूमि लंबे समय तक तपस्या व एकांत साधना हेतु संतों, आचार्यों का प्रिय स्थान रही है। ऐसी अनेक धरोहरें इस क्षेत्र में यत्र तत्र विद्यमान हैं जिनका महत्त्व हर व्यक्ति को जानकर उनका संरक्षण करने की आवश्यकता है। प्राचीन शैवाचार्यों की ईश्वरभक्ति, तपोनिष्ठा, निर्भयता, शांति व परिश्रम का संदेश देता प्रशांताश्रम शैव मठ व मंदिर किसी भी जागरुक व्यक्ति के लिए जीवन बदल देने वाला स्थान है।
0 टिप्पणियाँ