श्योपुर की पुरातनता में है पर्यटन की नूतन संभावनाएं, जानिए इस जिले का इतिहास एवं क्या है खास
भोपाल।
मध्यप्रदेश के पर्यटन स्थलों के प्रति बढ़ते रूझान को देखते हुए पर्यटन विभाग ने प्रदेश के महत्वपूर्ण, पर कम जाने-माने पर्यटन स्थलों को चिन्हित कर विकसित करने का निर्णय लिया है। इस क्रम में सर्वप्रथम श्योपुर में बैठक कर जिले की ऐतिहासिक, पौराणिक, प्राकृतिक विरासतों को चिन्हित किया जाएगा।
श्योपुर मप्र का सीमांत जिला है, जिसे चम्बल-पार्वती नदी के उस पार राजस्थान के बारां, कोटा, सवाई माधोपुर, करौली जिले घेरे हुए हैं। इसे मुसलमान शासकों ने स्योसूपुर और गौड़ राजाओं के समय 16वीं शताब्दी में सहरिया के नाम पर श्योपुर कहा गया। छठवीं सदी में यह अवंति जनपद का हिस्सा था। छोटे जनपदों के बड़े जनपदों में विलीनीकरण के बाद यह मगध साम्राज्य का हिस्सा बन गया।
नन्दों के पतन के बाद यह क्रमश: मौर्य और शुंगवंश से शासित रहा। बाद में यह नाग और गुप्त साम्राज्य का हिस्सा रहा। आठवीं सदी में यह गुर्जर प्रतिहार वंश के अधीन रहा। दसवीं सदी से डोब कुंड के कच्छपघातों का इस क्षेत्र पर शासन रहा। वर्ष 1398 में यह ग्वालियर के तोमरों के अधीन रहा।
इसके बाद यह क्षेत्र मुगलों के अधीन आया। मुगलों के पतन के बाद यहाँ गौड़ राजाओं का शासन रहा, जिनके शासन काल में श्योपुर में किला, मानपुर, काशीपुर में गढ़ी महलों का निर्माण हुआ, जिनके अदभुत भित्ति चित्र आज भी देखे जा सकते हैं। खडगराय कृत गोपांचल आख्यान में श्योपुर का जिक्र आया है, जिसके अनुसार नरेश राजा अजयपाल ने 1194 से 1219 ई. तक श्योपुर को अपनी राजधानी बनाकर राज्य किया था।
वर्ष 1301 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर को जीतते समय हम्मीरदेव द्वारा शासित 10 किलों को भी जीत लिया। बाद में श्योपुर मेवाड़ के राणाओं के आधिपत्य में आ गया। वर्ष 1489 में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने इसे जीतकर अपनी सल्तनत का हिस्सा बना लिया। वर्ष 1542 में श्योपुर किला शेरशाह के अधीन हो गया। शेरशाह द्वारा बनवाया गया ईदगाह व उसके पुत्र इस्लाम शाह द्वारा निर्मित उसके सिपहसालार का विशाल मकबरा एक दर्शनीय स्थल है। बाद में बूंदी के राजा सुर्जन सिंह हाड़ा ने इसे जीतकर अजमेर सूबे के अंतर्गत रणथम्भौर रियासत का हिस्सा बना दिया।
कहा जाता है कि श्योपुर किले को राजा विट्ठल दास गोपावत के पुत्र अनिरूद्ध गौड़ गोपावत ने वर्ष 1584 में बनवाना प्रारम्भ किया, जिसे राजा नरसिंह गौड़ ने वर्ष 1631 में पूर्ण कराया। श्योपुर में वर्ष 1644 के लेख में राजा गोपालदास के पुत्र मनोहर दास द्वारा दिये गये दान का उल्लेख है। इस लेख में औरंगज़ेब द्वारा राजा गोपालदास की उस वीरता का आदर करने का भी उल्लेख है, जो उन्होंने शाहजहाँ से लड़ते समय दिखाई थी। वर्ष 1669 के लेख में राजा इंदर सिंह, राजा उत्तमराम, राजा पुरूषोत्तम सिंह गौड का उल्लेख है। इसी प्रकार वर्ष 1685 के लेख में राजा राजसिंह, महाराजा उद्योत सिंह का उल्लेख है। राधा वल्लभ मंदिर से मिले वर्ष 1809 के अभिलेख में ग्वालियर के महाराजा दौलत राव सिंधिया के सेनापति जॉन बत्तीस और श्योपुर के राजा राधिक दास के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है।
महाराजा दौलत राव सिंधिया द्वारा श्योपुर किला जीतने तक यह किला मुगलों के कदर राजाओं के रूप में बंगाल से अजमेर आये राजा वत्सराज गौड़ के वंशजों के आधिपत्य में रहा। सिपाहड़ रियासत के इन 225 वर्षों का इतिहास गौड़ राजाओं की कीर्ति गाथा, स्थापत्य कला, संस्कृति व संगीत के क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदान से भरा है। नरसिंह महल, पतंगबुर्ज़, मनोहर बावड़ी, राजा इंदर सिंह, राजा किशोरदास की छत्रियां उस समय की स्थापत्य कला के सुंदर नमूने हैं। सोलहवीं सदी में 48 स्तंभों से युक्त राजा नरसिंह गौड़ महल में दरबार लगता था। इसमें से एक सुरंग बड़ोदा तक जाती है।
इसमें कांच की कारीगरी का काम है। पतंगबुर्ज का निर्माण भी इसी काल का है। आठ स्तंभों पर आधारित पतंगबुर्ज का उपयोग पतंग उड़ाने के लिए किया जाता होगा। राधावल्लभ मंदिर, राजा इंद्रा सिंह, किशोरदास की छत्रियां, बारादरी, गुरूमहल, सूरी का मकबरा, घुड़साल और अनेक गौड़कालीन दर्शनीय स्थल हैं। दरबार हॉल, दीवान-ए-आम सिंधियाकालीन दर्शनीय स्थल हैं। सीप नदी का तट इस दुर्ग को और मोहक बना देता है।
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