ओह! यह कैसा समय आ गया-- नीलू गुप्ता का पढ़िए कोरोना पर आलेख

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ओह! यह कैसा समय आ गया-- नीलू गुप्ता का पढ़िए कोरोना पर आलेख



ओह! यह कैसा समय आ गया-- नीलू गुप्ता का पढ़िए कोरोना पर आलेख




आज हमारे सामने बड़ी ही विडंबनात्मक स्थिति है। समय ने कुछ ऐसा रुख मोड़ लिया है कि मनुष्य इस बदलाव को आत्मसात ही नहीं कर पा रहा है। कहते हैं हर बदलाव में कुछ सकारात्मकता छिपी होती है, पर आज जिस तरह समय बदला है, उसमें तो हमारी सोचने समझने की शक्ति भी क्षीण होती नज़र आ रही है । मानसिक रूप से आज हम  बीमार - ग्रस्त हो रहे हैं। एक समय था जब लोग एक दूसरे से मिलते थे, बड़े प्यार से हंसते - मुस्कुराते थे, अपने आत्मीय जनों को गले लगाते, मिल बैठकर खाते थे पर स्थिति ऐसी बदली कि क्या कहे? एक दूसरे को देख लोग कतराने लगे हैं, दूर होने की कोशिश कर रहे हैं। सामने से कोई आता दिख जाए तो रास्ता ही बदल ले रहे हैं। भारतीय संस्कृति की विशेषता अतिथि देवो भव: अर्थात अतिथि देवता समान है, हमें घर आए अतिथि का आदर और सम्मान करना है, यह सब तो अब रहा ही नहीं। अब तो कोई कहीं बाहर से आ जाए तो सबसे पहले पुलिस को सूचना देने की नौबत आ गई है। किसी को कोई एक गिलास पानी के लिए भी अब नहीं पूछ रहा है। पहले ऑफिस, कार्यालयों में एक टिफिन खुल जाए तो लोग इस कदर उसपर झपट पड़ते थे जैसे चीटियां चीनी या गुड़ देख उस ओर बढ़ती है। अब हालात ऐसे है कि कोई किसी को टिफिन बांटना तो दूर, उन्हें छूना भी नागवार समझने लगा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि छूत - अछूत वाली परंपरा फिर से आ जायेगी? जिसे कोरोना नामक बीमारी ने संक्रमित कर दिया, उसे लोग अछूत समझने लगे है,उन्हें इस तरह देखा जाने लगा है जैसे यह बीमारी, जो उन्हें अनजाने में हो गई है, इसके लिए वे ही जिम्मेदार है। ऐसा व्यवहार किया जा रहा है जैसे बीमारी वे ही लाए हैं तो उन्हें ही सूली पर चढ़ा दिया जाए।अरे, वे भी तो किसी मजबूरी में ही आए होंगे और कोई भी यह नहीं चाहता कि वो बीमार पड़े, इस महामारी से संक्रमित हो। उन्हें मानसिक संबल प्रदान करने के बजाय उनका मानसिक शोषण ही होने लगा है। कहां गया वह स्वभाव मनुष्य का जो परोपकार में विश्वास रखता है? धैर्य बंधाना तो दूर, लोग उन्हें घृणा की दृष्टि से देखने लगे हैं। यही अंजाम देखना बाकी था धरती पर! कई ऐसे सवाल मेरे ज़हन में बार - बार उठते हैं कि कैसी जीवन - शैली होगी भविष्य में हमारी, कैसे गुजारा होगा संसार में, हम कहां - कहां और कैसे बचेंगे इससे? सुना तो बहुत कि सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क, स्वच्छता ही उपाय है पर व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह सब बचाव के उपाय ज़रूर है पर क्या इससे हम सुरक्षित रहेंगे?  गर्मी की तेज धूप में जब बदन पर कपड़ा रखना ही मुश्किल हो जाता है, ऐसे में हम पूरे दिन मास्क पहनकर कैसे रहेंगे? दो गज की दूरी बस, रेल, ऑटो आदि में कैसे रख पाएंगे? स्वच्छता की जहां बात है हम ज्यादा से ज्यादा एक से दो बार स्नान कर सकते हैं पर दिन भर में कितनी ही बार तो हम लोगों से मिलेंगे, फिर बार - बार कैसे हम खुद को स्वच्छ करते रहेंगे? कई जगहों पर तो पानी की ऐसी किल्लत है कि पीने के लिए नसीब नहीं होता तो वहां बार - बार हाथ धोने का प्रयोजन कैसे सफल होगा? छोटे - छोटे बच्चों को हम कैसे समझाएंगे कि एक दूसरे को छूना नहीं है, कैसे उनके तरह - तरह के सवालों के जवाब देंगे? प्यारे - प्यारे बच्चों को हम कहीं भी देखें, उन्हें गोद में उठाने की इच्छा तो सबकी होती है, फिर कैसे उन मधुर मुस्कानों से खुद को दूर करते रहेंगे? मौत को हम कब, कहां, कैसे आमंत्रित कर आएंगे, इसका हमें अंदाजा भी नहीं होगा। आखिर क्या होगा समाधान इसका? समाधान नहीं तो अंजाम भयावह होगा, इसमें कोई शक नहीं। समय के इस बदलते रवैये के सामने मैं नि:शब्द हूं।

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